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Karan Ka Tila, Mirzapur
मान्यताओं के अनुसार यह टीला कभी महाभारत के प्रसिद्ध नायक राजा कर्ण का किला होता था। स्थानीय लोगो के अनुसार माना जाता है। कि आज भी कर्ण के टीले के नीचे बहुत सारा खजाना छुपा हुआ है । जिस खजाने से राजा कर्ण दान करते थे । कर्ण के टीले के पास एक प्रचीन कुआं भी है । जहां पर माना जाता है कि कर्ण अपना सोना छुपाया करते थे । और अब इस कुए में सांपो का पहरा है । जो वहा छुपे खजाने की रक्षा करते है।
यह पुरातात्त्विक स्थल कुरुक्षेत्र से लगभग 5 कि.मी. की दूरी पर मिर्जापुर नामक ग्राम में स्थित है । इस टीले की ऊंचाई 9 से 12 मीटर है । यह भारत सरकार के विभाग भारतीय पुरातत्व सवेक्षण द्वारा संरक्षित स्मारक हैं। कर्ण को एक आदर्श दानवीर माना जाता है क्योंकि कर्ण ने कभी भी किसी माँगने वाले को दान में कुछ भी देने से कभी भी मना नहीं किया भले ही इसके परिणामस्वरूप उसके अपने ही प्राण संकट में क्यों न पड़ गए हों।
कर्ण महाभारत के सर्वश्रेष्ठ धनुषधारी में से एक थे। कर्ण छ: पांडवों में सबसे बड़े भाई थे । कर्ण की वास्तविक माँ कुन्ती थीं और उनके धर्मपिता महाराज पांडु थे। कर्ण के वास्तविक पिता भगवान सूर्य थे।
कर्ण का जन्म पाण्डु और कुन्ती के विवाह के पहले हुआ था। कर्ण लोक निन्दा के भय से माता कुन्ती द्वारा त्याग दिया गया था। वह सूत दम्पति अधिरथ और राधा द्वारा उनका पालन पोषण हुआ।
कर्ण सूर्यदेव के अनन्य उपासक तथा महा दानवीर थे। जन्म के साथ ही इन्हें कवच और कुण्डल प्राप्त थे। दुर्योधन ने इन्हें अंग देश का राजा बनाया था, जिसके फलस्वरूप इन्होंने कौरवों की ओर से पाण्डवों के विरुद्ध युद्ध किया। इन्द्र ने ब्राह्मण वेश धारण कर अर्जुन की सुरक्षा हेतु सूर्य पूजा के समय कर्ण से कवच और कुण्डल का दान माँग लिया था। कर्ण का प्रण था कि वह सूर्य पूजा के समय याचक की याचना अवश्य पूरी करेंगे। अतः अपने प्रण की रक्षा के लिए उन्होंने कवच और कुण्डल इन्द्र को दान दे दिए। यद्यपि वह जानते थे कि कवच और कुण्डल के अभाव में उनके प्राणों पर संकट आ सकता है।
अंगराज बनने के पश्चात कर्ण ने ये घोषणा करी कि दिन के समय जब वह सूर्यदेव की पूजा करता है, उस समय यदि कोई उससे कुछ भी माँगेगा तो वह मना नहीं करेगा और माँगने वाला कभी खाली हाथ नहीं लौटेगा। कर्ण की इसी दानवीरता का महाभारत के युद्ध में इन्द्र और माता कुन्ती ने लाभ उठाया। महाभारत के युद्ध के बीच में कर्ण के सेनापति बनने से एक दिन पूर्व इन्द्र ने कर्ण से साधु के भेष में उससे उसके कवच-कुण्डल माँग लिए। क्योंकि यदि ये कवच-कुण्डल कर्ण के ही पास रहते । तो उसे युद्ध में परास्त कर पाना असम्भव था । और इन्द्र ने अपने पुत्र अर्जुन की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए । कर्ण से इतनी बडी़ भिक्षा माँग ली । लेकिन दानवीर कर्ण ने साधु भेष में देवराज इन्द्र को भी मना नहीं किया । और इन्द्र द्वारा कुछ भी वरदान माँग लेने पर देने के आश्वासन पर भी इन्द्र से ये कहते हुए कि “देने के पश्चात कुछ माँग लेना दान की गरिमा के विरुद्ध है”।
इसी प्रकार माता कुन्ती को भी दानवीर कर्ण द्वारा यह वचन दिया गया। कि इस महायुद्ध में उनके पाँच पुत्र अवश्य जीवित रहेंगे। और वह अर्जुन के अतिरिक्त और किसी पाण्डव का वध नहीं करेगा। और उसने वही किया । कर्ण ने अर्जुन के वध के लिए देवराज इंद्र से इंद्रास्त्र भी माँगा था। कर्ण दुर्योधन का सबसे अच्छा मित्र था। और महाभारत के युद्ध में वह अपने भाइयों के विरुद्ध लड़ा। सत्रहवें दिन युद्ध में कर्ण और अर्जुन में महा भीषण युद्ध हुआ था ।
और इस युद्ध में कर्ण और अर्जुन दोनो ही एक दूसरे पर महाअस्त्र का प्रयोग कर रहे थे । कि तभी कर्ण के रथ का पहिया जमीन में धस गया और कर्ण उसे नही निकाल पा रहा था । और तभी श्रीकृष्ण के संकेत पर अर्जुन ने कर्ण का वध कर दिया था।
इस टीले का सर्वेक्षण सर्वप्रथम कनिंघम ने तथा उत्खनन डी.बी. स्पूनर ने किया था। टीले से उत्खनन से प्राप्त अवशेषों को चार सौ से सौ ईसा पूर्व तक तथा सौ ईसा पूर्व से तीन सौ ईसवी तक के दो कालों में विभाजित किया गया है। यहां पचास सेंटीमीटर लंबी ईंटो के प्रमाण प्राप्त हुए हैं। अन्य वस्तुओं में पत्थर के सिल व मूसल, पक्की मिट्टी व अल्प मूल्यवान पत्थर के मनके, पक्की मिट्टी की पशुओं की मूर्तियां आदि प्रमुख हैं। यहां से पक्की मिट्टी की दो मुहरों की छाप, जिस पर स्वस्तिक, सर्प, नंदीपाद औऱ अर्धचंद्र अंकित हैं, भी प्राप्त हुई हैं।