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सांस्कृतिक विरासत

कुरुक्षेत्र की धरती, सरस्वती व् द्रिशाद्वती नाम की दो पौराणिक नदियों के बीच की धरती है| यह दोनों पौराणिक नदियाँ, पुराने समय में हुई भू गर्भीय उथल पुथल व् वातावरण में हुए बदलाव के कारन विलुप्त हो गयी हैं|

कुरुक्षेत्र की संस्कृति मूल रूप से हिंदू दर्शन से उत्पन्न हुई जो कि बाद में अन्य धर्मों के संतों, गुरुओं, प्रचारकों द्वारा समृद्ध की गयी, जिनमे जैन धर्म, बौद्ध धर्म और सिख धर्म शामिल है।

प्राचीन काल में कुरुक्षेत्र पूर्व-हड़प्पा और हरप्पन सभ्यता के लोगों के प्रभाव में था और बाद में यह आर्यों के प्रभाव में आया। चारों वेद व् अन्य वैदिक ग्रन्थ कुरुक्षेत्र की इसी भूमि पर लिखे गए थे। वैदिक युग में, संस्कृत इस क्षेत्र की मुख्य भाषा थी। बाद के काल में, जिसे भारत की स्वर्णिम अवधि कहा जाता है, गुप्ता शासकों ने इस धरती पर शासन किया ।
कुरुक्षेत्र की भूमि पर बहुत सारे विदेशी आक्रमण भी हुए| तुर्क, मंगोल, अफगान या मुगलों द्वारा भारत पर किये हर आक्रमण ने कुरुक्षेत्र भूमि की संस्कृति पर एक प्रभाव छोड़ा | इस तरह, कुरुक्षेत्र की भूमि विभिन्न संस्कृतियों और परंपराओं का संगम है जो इसे एक समृद्ध विरासत प्रदान करती है। इस क्षेत्र का लोक नृत्य और लोक संगीत भारत की मजबूत परंपरा को दर्शाता है।

हरियाणा प्रदेश की आधुनिक संस्कृति की तरह ही कुरुक्षेत्र में भी पारंपरिक मूल्यों के प्रति झुकाव है। स्थानीय गांव के लोग ‘खाप’ प्रणाली के माध्यम से एक दूसरे के साथ एक मजबूत सामाजिक बंधन बनाए रखते हैं। यह प्रणाली आमतौर पर गांव य खाप के मुखिया के प्रभाव से चलती है।

बोली

मुख्य तौर पर स्थानीय भाषा हिंदी ही है| जिसे लोकप्रिय बोली के रूप में बंगारू या हरियाणवी के नाम से जाना जाता है। यह भाषा बहुत सीधी साधी है और इसमें सम्मिलित विनोद भाव इसकी विशेषता है। इसके अलावा कुरुक्षेत्र के लोग हिंदी, उर्दू, पंजाबी और अंग्रेजी जैसी आधुनिक भाषाएँ भी बोलते हैं।

कुरुक्षेत्र की धरती, सरस्वती व् द्रिशाद्वती नाम की दो पौराणिक नदियों के बीच की धरती है| यह दोनों पौराणिक नदियाँ, पुराने समय में हुई भू गर्भीय उथल पुथल व् वातावरण में हुए बदलाव के कारन विलुप्त हो गयी हैं|

48 कोस कुरुक्षेत्र

AREA 48 KOS